Monday, December 26, 2011

स्वर्गिक शांति का ख़ज़ाना है नमाज़ How to perfect your prayers (video)

नमाज़ का पूरा तरीक़ा जानने के लिए देखिए यह वीडियो

नमाज़ क्या है ?
नमाज़ एक मुकम्मल इबादत है और इबादत भी ऐसी है जो कि बंदे को रब से तुरंत जोड़ती है और उसका रूख़ सीधे रास्ते की तरफ़ मोड़ती है, तुरंत। नमाज़ की हैसियत दीन में ऐसी है जैसी कि इंसान के शरीर में सिर की हैसियत होती है। जिसका सिर गया उसकी जान गई।  नमाज़ सलामत है तो समझो दीन सलामत है। नमाज़ में सलामती और शांति है।
नमाज़ में बंदा क़ुरआन पढ़ता है और क़ुरआन सुनता है। सुनते सुनते क़ुरआन उसके दिल में बस जाता है। क़ुरआन अल्लाह का हुक्म है और एक नूर है। क़ुरआन अल्लाह का कलाम और उसकी हिदायत है जो बंदों को रास्ता दिखाता है, उन्हें भटकने से बचाता है। नमाज़ में आदमी तन ढक कर खड़ा होता है। नमाज़ में आदमी पाक होकर, पाक जगह पर और पाक कपड़े पहन कर खड़ा होता है। नमाज़ इंसान को पाक करती है।
बेशक नमाज़ बेशर्मी और गुनाह के कामों से रोकती है।
क़ुरआन में शिफ़ा है। नमाज़ में भी शिफ़ा है। आज का इंसान बीमार है। हरेक इंसान आज बीमार है। जो तन से ठीक हैं , मन से वे भी बीमार हैं। अच्छी ख़ुराक न मिले तो तन बीमार पड़ जाता है और अच्छी ख़ुराक न मिले तो मन भी बीमार पड़ जाता है। मन की ख़ुराक अच्छे विचार हैं। क़ुरआन ईश्वर अल्लाह का विचार है। सो क़ुरआन सबसे अच्छा विचार है, सबसे अच्छी बात है। मन इस पर मनन करता है तो उसे ख़ुराक मिलती है, उसमें आशा का भाव जागता है और मन से उदासी का भाव दूर होता है। उसमें सकारात्मकता आती है। मन हमदर्दी और परोपकार जैसे अच्छे विचारों से भर जाता है तो गंदे विचार के लिए जगह ही नहीं बचती। इस तरह मन भी पाक साफ़ हो जाता है। विचार अच्छे हों तो काम भी अच्छे होंगे और अच्छे काम का अंजाम भला ही होता है। अच्छा काम अपने अंदर ख़ुद एक पुरस्कार होता है। मन चंगा होता है तो कठौती में गंगा बहने ही लगती है यानि मन निर्मल हो तो उसके अंदर ज्ञानगंगा का झरना बहने लगता है। यह वह ईनाम है जो कि नमाज़ी को नक़द मिलता है और जिसे देखा भी जा सकता है।
नमाज़ इंसान को उसकी हक़ीक़त की पहचान कराती है। उसे ईश्वर-अल्लाह के सामने झुकना सिखाती है, उसमें विनम्रता और आजिज़ी जगाती है। इंसान में नर्मी हो तो वह दूसरों के साथ एडजस्ट कर सकता है। नमाज़ अहंकार को दूर करती है। नमाज़ के लिए इंसान अपने परिवार और अपने कारोबार को छोड़ कर आता है। नमाज़ इंसान के दिल से लालच और डर को भी दूर करती है। जो नमाज़ में अपने पैदा करने वाले के सामने नहीं झुकते वे अपने अहंकार में अकड़े हुए खड़े रहते हैं या फिर लालच और डर की वजह से किसी ग़लत जगह पर झुकते रहते हैं। नफ़ा और नुक्सान तो बस उस एक मालिक के हाथ में है जिसने हर चीज़ को पैदा किया है। सारा संसार बस उसी का है और जो कुछ यहां होता है उसी की इच्छा से होता है। यहां कभी किसी को भलाई नसीब होती है और कभी बुराई। कभी वह परीक्षा होती है और कभी दंड। जो नमाज़ की तरफ़ नहीं आता वह सज़ा पा रहा है लेकिन वह जानता नहीं है। इससे बड़ी सज़ा क्या होगी कि आदमी गंदा और बीमार मन लेकर जिए और फिर किसी दिन इसी सड़ी हुई हालत में वह मर जाए , अपनी हक़ीक़त और अपना कर्तव्य जाने बिना ही ?
कचरे का अंजाम क्या है सिवाय इसके कि उसे जला दिया जाए ?

अज़ान क्या है ?
अज़ान एक पुकार है। इसमें बंदों को नमाज़ के लिए बुलाया जाता है। यह बुलावा केवल मुसलमान के लिए ही नहीं होता बल्कि हरेक इंसान के लिए होता है। जो आता है वह पाता है और जो नहीं आता वह खोता है।
मालिक की तरफ़ इंसान को बुलाया जा रहा है और सुनने वाला कभी पुकारने वाले की भाषा को देखता है और कभी उसकी वेष-भूषा को और इनमें से कोई न कोई बात देखकर वह मालिक की तरफ़ आने से रूक जाता है लेकिन जब ऐसा ही कोई आदमी उसे खाने-पीने और खेल-कूद के लिए बुलाता है तो फिर वही इंसान उसकी भाषा-संस्कृति पर कोई विचार तक नहीं करता और दौड़ा चला जाता है उसके बुलावे पर। अपने मालिक को ऐसे बंदे क्या जवाब देंगे ?
उन्हें सोचना चाहिए।
जिस मालिक ने हर वह चीज़ दी जो कि चाहिए थी। जिसने आकाश में घूमती हुई धरती पर हमारे लिए जीना सरल किया , जिसने  हवा, पानी और हरियाली का अनमोल ख़ज़ाना हमें दिया। जिसने जीवन साथी और बाल-बच्चे, मां-बाप और यार-दोस्त दिए। जो खाने-पीने के लिए देता है। जो हमें नींद और ताज़गी
देता है, उसे कभी शुक्रिया तक न कहा, उसके बुलावे पर कभी ध्यान ही न दिया। यह सबसे बड़ी नाशुक्री है। नाशुक्रा आदमी इंसानियत के दायरे से ही ख़ारिज है। ऐसा आदमी अपने पद से गिर गया और अपनी हद से निकल गया।
नमाज़ पतित पावनी है
नमाज़ इंसान को फिर से उसके पद पर आसीन करती है और उसे उसकी हद में रखती है। आदमी का पद दरअस्ल ‘बंदगी का पद‘ है। बंदा वह है जो अपने रब की मर्ज़ी पर चलने वाला हो न कि अपनी मनमर्ज़ी पर। किताब सुनते रहो और अपना हिसाब करते रहो कि एक दिन हरेक को अपना हिसाब देना है। हर आदमी बार बार देखता रहे कि वह अपने रब की मर्ज़ी पर चल रहा है या उससे हटकर अपनी मर्ज़ी पर ?
जो यह अभ्यास रोज़ाना करता रहेगा वह धीरे धीरे रब की मर्ज़ी पर चलने वाला बंदा बन जाएगा।
रब की मर्ज़ी यह है कि इंसान धरती में एक अच्छा इंसान बनकर रहे और लोगों को भी सत्य का उपदेश करता रहे। 
रब की मर्ज़ी यह है कि इंसान कोई जुर्म न करे, कोई पाप न करे, वह धरती में ख़ुद भी शांति के साथ रहे और दूसरों को भी शांति के साथ रहने दे। जिसका जो हक़ बनता है उसे अदा करे और किसी पर कोई ज़ुल्म ज़्यादती न करे बल्कि जहां भी ज़ुल्म ज़्यादती हो वहां हद भर उसे मिटाने की कोशिश करे। वह बोले तो अच्छी बात बोले वर्ना चुप रहे। रब की मर्ज़ी यह है कि इंसान अपने हरेक रूप में ख़ुद को अच्छा बनाए। पति-पत्नी, मां-बाप, औलाद, पड़ोसी, जज, हाकिम और सैनिक, जितने भी रूप हैं उन सबमें वह अच्छा हो। उसकी शरारत से लोग सुरक्षित हों। उसके पड़ोस में कोई भूखा न सोता हो। अपने माल को वह ग़रीब, अनाथ और ज़रूरतमंदों पर भी ख़र्च करता हो और बदले में उनसे कुछ न चाहता हो, शुक्रिया तक भी नहीं। रब यह चाहता है कि बंदा यह सब करे और मेरे कहने से करे और सिर्फ़ मेरे लिए ही करे।

लोग ऐसा करें तो समाज से ऊंचनीच, छूतछात, वेश्यावृत्ति, नशाख़ोरी, दहेज हत्या, कन्या भ्रूण हत्या आदि जरायम का मुकम्मल सफ़ाया हो जाएगा। भय, भूख, अन्याय और भ्रष्टाचार का ख़ात्मा ख़ुद ब ख़ुद हो जाएगा। उनके लिए अलग से कोई आंदोलन चलाने की ज़रूरत ही नहीं है। जब तक लोग ऐसा नहीं करेंगे तब तक वे कुछ भी कर लें, इनमें से कुछ भी ख़त्म होने वाला नहीं है और शांति आने वाली नहीं है।
शांति चाहिए तो नमाज़ क़ायम करो।
व्यक्तिगत नमाज़ व्यक्ति को शांति देती है और सामूहिक नमाज़ उस पूरे समूह को शांति देती है। पूरी दुनिया को शांति चाहिए तो पूरी दुनिया नमाज़ क़ायम करे।
आओ नमाज़ की तरफ़,
आओ भलाई की तरफ़
दुनिया की भलाई नमाज़ में है।
नमाज़ दुनिया में शांति की स्थापना करती है।
शांति स्वर्ग से है। जो शांति को महसूस करता है, वह अपने अंदर स्वर्ग के आनंद को महसूस करता है। यही वह स्वर्ग का राज्य है जिसे धरती पर लाना है। ईश्वर की इच्छा यही है कि हम उसके नाम से शांति पाएं। नमाज़ के लिए वह हमें इसीलिए बुलाता है ताकि हम शांति पाएं।
शांति क़ायम करना और उसे क़ायम रखना इंसान की बुनियादी ज़रूरत है और इसी को मालिक ने हमारा बुनियादी कर्तव्य और हमारा धर्म निर्धारित कर दिया है।
शांति हमारी आत्मा का स्वभाव और हमारा धर्म है।
शांति ईश्वर-अल्लाह के आज्ञापालन से आती है।
नमाज़ इंसान को ईश्वर-अल्लाह का आज्ञाकारी बनाती है।
नमाज़ इंसान को शांति देती है, जिसे इंसान तुरंत महसूस कर सकता है।
जो चाहे इसे आज़मा सकता है और जब चाहे तब आज़मा सकता है।
उस रब का दर सबके लिए सदा खुला हुआ है। जिसे शांति की तलाश है, वह चला आए अपने मालिक की तरफ़ और झुका दे ख़ुद को नमाज़ में।
जो मस्जिद तक नहीं आ सकता, वह अपने घर में ही नमाज़ क़ायम करके आज़मा ले।
पहले आज़मा लो और फिर विश्वास कर लो।

नमाज़ का तरीक़ा सीखने के लिए देखिए यह हिंदी किताब

विभिन्‍न प्रकार की नमाज और उन्हें पढने का तरीका namaz ka tariqa



लाखों हिन्‍दी जानने वाले हमारे भाईयों-बहनों को अरबी न समझने के कारण नमाज़ पढने में दिक्‍कत होती है, उनकी परेशानी को देखते हुये, पेश है ऐसी किताब जो नमाज विषय पर हिन्‍दी में सभी जानकारी देती है .

Sunday, October 9, 2011

इस्लाम सारी मानव जाति के लिए संपूर्ण मार्गदर्शन है

http://dinouna.centerblog.net/
जाने क्या मनोग्रंथि है कि इस्लाम के खिलाफ कोई न कोई लिखता ही रहता है चाहे उसकी बात कितनी ही बेबुनियाद क्यों न हो ?
भाई साहब कह रहे कि इस्लाम के प्रचारक अक्सर यह दावा करते हैं कि इस्लाम को मानने वाले सभी मुसलमान एक हैं।
इस भूमिका के बाद उन्होंने जितने भी सवाल किए हैं उन सबकी हैसियत कुछ भी नहीं है क्योंकि उन्होंने इस्लाम के प्रचारकों की तरफ से एक ऐसा दावा पेश कर दिया है जो कि इस्लाम के प्रचारक कभी करते ही नहीं हैं।
उनकी भूमिका की बुनियाद ही झूठ पर है।
तपन कुमार जी किसी वेबसाइट या किसी पत्र-पत्रिका में किसी इस्लामी प्रचारक के दावे का उद्धरण देकर अपनी बात को सिद्ध तो करते कि यह बात यहां कही गई है।
इस्लाम और मुसलमानों को समझने में यही गलती आम तौर पर की जाती है।
किसी भी धर्म-मत और समुदाय को समझने के लिए आपको उनके मूल स्रोत को जानना लाजिमी है ताकि यह जाना जा सके कि वे मूल स्रोत किस काम को सही और किस काम को गलत ठहरा रहे हैं ?
इस्लाम धर्म कहता है कि दंड का अधिकार केवल राज्य और अदालतों को है जो कि नियमानुसार दिया जाए। इसके अलावा किसी आदमी को कोई अधिकार नहीं है कि वह किसी की जान ले, यहां तक कि कोई आदमी अपनी पत्नी या अपनी औलाद के गाल पर थप्पड मारने का भी अधिकार नहीं रखता है। यही बात शिया धर्मगुरू बताते हैं और यही बात सुन्नी धर्मगुरू बताते हैं, दोनों ही मत के सारे आलिम इस बात पर एक मत हैं। इनमें कोई भी आलिम एक दूसरे को मारने या सताने की बात कहीं भी नहीं कहता और अगर लोग उनकी बात को मान लें तो कहीं भी कोई दंगा फसाद ही न हो।
धर्म पर चलने के लिए ज्ञान भी चाहिए और संयम भी।
ज्ञान इसलिए ताकि यह पता हो जाए कि हमें किन सिद्धांतों का पालन करना है और संयम इसलिए कि बहुत सी नापसंद बातों को नजरअंदाज करना पडता है, बहुत से कष्ट झेलकर भी क्षमा करना पडता है, तब जाकर जीवन और समाज में शांति प्राप्त होती है।
जो लोग धर्म का सही ज्ञान नहीं रखते और न ही उन्होंने अपने अंदर संयम का गुण विकसित किया है, वे जो कुछ करते हैं, धर्म से हटकर करते हैं। अगर वे धर्म के नियम का पालन करते तो उनमें वही एकता होती जिसकी शिक्षा इस्लाम देता है।

इस्लाम एकता की शिक्षा देता है, वह कहता है कि अलग अलग चीजों के मालिक अलग अलग देवी-देवता नहीं हैं बल्कि सबका मालिक एक ही है। तुम सब उसके बंदे हो, उसके बंदे बनकर रहो, उसका हुक्म मानो, भले काम करो, बुरे कामों से बचो, दूसरों के साथ वही व्यवहार करो जो कि तुम अपने लिए पसंद करते हो।
तुम कुछ भी करने के लिए आजाद नहीं हो, जो कुछ तुम करते हो, ईश्वर उसका साक्षी है और हर चीज का रिकॉर्ड उसके फरिश्ते भी अंकित कर रहे हैं और जिन लोगों के साथ तुम बुरा या भला काम कर रहे हैं वे भी तुम्हारे कामों के गवाह हैं।
मौत तुम्हारे जीवन का अंत नहीं है बल्कि मौत के बाद भी जीवन है और जैसा तुम यहां करोगे उसका फल तुम वहां अवश्य ही भरोगे। किसी की सिफारिश या माल-दौलत या उसकी ऊंची जाति उसके कुछ काम नहीं आएगी। जो भला आदमी होगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, चाहे उसका कुल-गोत्र और उसका देश-भाषा और उसकी संस्कृति कुछ भी हो, वह जन्नत में जाएगा जिसे स्वर्ग और हैवन भी कहा जाता है और जो दुष्ट पापी और अन्यायी होगा वह जहन्नम में जाएगा, जिसे नर्क और हेल भी कहते हैं। जो भी व्यक्ति या समुदाय इन बातों को भूल कर जिएगा, वह यहां भी कभी शांति नहीं पा सकता। 

इस्लाम कोई नया धर्म नहीं है और न ही इसके मौलिक सिद्धांत नए हैं। ईश्वर के एक होने और उसके द्वारा मानव जाति को उसके भले-बुरे कर्मों का फल देने की बात सदा से चली आई है।
और यह बात भी सदा से ही चली आ रही है कि अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए आदमी धर्म के इन नियमों को भुलाता भी आ रहा है। वह खुद को धर्म के अनुसार नहीं बदलता बल्कि धर्म को अपनी इच्छा और अपनी वासना के अनुसार बदल लेता है। अपने लालच को पूरा करने के लिए वह झगडे खडा करता है और अपनी राजनीति चमकाने के लिए वह कभी जाति और कभी भाषा और कभी इलाके को बुनियाद बना लेता है और कभी अपनी मान्यता और अपनी परंपराओं की आड ले लेता है।

धर्म को जानने वाले शिया और धर्म को जानने वाले सुन्नी कभी कहीं भी नहीं लडते।
लडते वही हैं जो कि धर्म को नहीं बल्कि अपने लालच को जानते हैं। लालच बीच में आ जाए तो भाई भाई को मार डालता है। महाभारत का युद्ध इसका साक्षी है, जिसमें 1 अरब 88 करोड़ लोग हाथी घोडों समेत मारे जाने बताए जाते हैं।
इस्लाम की शिक्षा आम होने के बाद अब इतनी बड़ी तादाद में मारे जाने की घटनाएं बंद हो गई हैं।
यह एक बड़ी उपलब्धि है और सभी लोग उसके विधान को मान लें तो हत्या, आत्महत्या और आतंकवाद का सिलसिला बिल्कुल बंद हो जाएगा।
इस्लाम कोई नया धर्म नहीं है बल्कि सनातन है अर्थात सदा से चला आ रहा है।
ईश्वर सौ-पचास नहीं हैं और न ही उसके धर्म सौ-पचास हैं।
ईश्वर सदा से एक है और उसका धर्म भी सदा से एक ही है।
हिंदू भाई उसे सनातन धर्म कहते हैं और मुसलमान उसे इस्लाम कहते हैं।
दोनों नाम एक ही धर्म के हैं।
समय समय पर अपनी ओर से बढ़ा ली गई बातों को हटाकर जब धर्म मौलिक सिद्धांतों को देखा जाता है तो वे एक ही मिलते हैं और यही बात है कि न सिर्फ धर्म को जानने वाले शिया-सुन्नी आपस में नहीं लड़ते बल्कि धर्म को तत्वतः जानने वाले हिंदू भी किसी से नहीं लड़ते ।
हिंदुओं में भी वही लड़ते हैं जो कि धर्म को नहीं जानते।

भला काम करना धर्म है और बुरा काम करना अधर्म है।
इस बात को हरेक धार्मिक आदमी जानता है और अपनी ताकत के मुताबिक वह भले काम करता भी है। आज जमीन पर जितनी भी शांति है वह धर्म का पालन करने वाले इन लोगों की वजह से ही तो है और इस्लाम का तो धात्वर्थ ही शांति है।
सनातन धर्म उर्फ़  इस्लाम अपनी तरह का अकेला धर्म है क्योंकि 
  • यह ईश्वरीय है और इसके अलावा जितने भी मत हैं वे दार्शनिकों के मन-मस्तिष्क की उपज हैं जो कि समय गुजरने के साथ ही अव्यवहारिक हो चुके हैं।
  • जिन लोगों ने सनातन धर्म या इस्लाम में अपनी ओर से कुछ परंपराएं बढ़ा ली थीं वे भी आज व्यवहारिक नहीं रह गई हैं जबकि जो नियम ईश्वर ने दिए थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं।
इस्लाम किसी और मत की तरह कैसे हो सकता है ?
  • इस्लाम ब्याज लेना हराम-वर्जित घोषित करता है और समृद्ध आदमी के लिए अपने माल में से 2.5 प्रतिशत माल जरूरतमंदों को जकात के रूप में देना अनिवार्य घोषित करता है।
  • इसके अलावा सदका और फ़ितरा अलग से देने के लिए कहता है।
  • इस्लाम कहता है कि जिस आदमी की शरारत से उसके पडौसी सुरक्षित न हों, वह आदमी ईमान वाला नहीं है।
  • जो आदमी खुद पेट भरकर खाए और उसका पडोसी भूखा हो तो वह आदमी ईमान वाला नहीं है।
  • जो आदमी झूठ बोले और धोखा दे वह आदमी भी ईमान वाला नहीं है।
  • ईमान वाला आदमी वह है जो कि उस मालिक के ठहराए हुए जायज को जायज और नाजायज को नाजायज मानता है और सबसे बेहतर ईमान वाला वह है जो अपने माता-पिता, अपनी पत्नी-बच्चों और अपने पडोसियों के साथ भला बर्ताव करने वाला है।
  • जिसके दिल में राई के दाने के बराबर भी अहंकार है, वह जन्नत में नहीं जाएगा।
  • जो चोरी, डाके, हत्या, नशा, व्यभिचार और मिलावट करता है और बिना तौबा किए और बिना खुद को सुधारे मर गया तो उसका ठिकाना जहन्नम है। उसका इस्लाम का दावा उसे जहन्नम में जाने से बचा न पाएगा। 
  • केवल इस्लाम ही तो है जो विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति देता है। 
  • केवल इस्लाम ही तो है कि जो कहता है कन्या पक्ष वर पक्ष को कोई धनादि देने के लिए बाध्य नहीं है लेकिन वर पक्ष निकाह के समय लडकी मेहर देगा।
  • औरत का भी अपने बाप, बेटे और पति की जायदाद में हिस्सा है, यह बात केवल इस्लाम कहता है।
  • इस्लाम के अलावा कोई और धर्म यह बात कहता हो तो कोई लाकर दिखाए ?
  • मासिक धर्म के दिनों में औरत को बेडरूम से बाहर न निकाला जाए बल्कि वह उन दिनों में चूल्हा चौका कर सकती है और उसके हाथ का बना खाना पूरी तरह से शुद्ध है, यह बात केवल इस्लाम ही तो बताता है।
  • विवाह एक समझौता है और यह समझौता तलाक या पति की मौत के साथ ही खत्म हो जाता है और महिला  नए सिरे से विवाह करने के लिए आजाद है। वह किसी के साथ जन्म जन्मांतर तक के लिए बंध नहीं गई है। तलाक लेने का हक औरत भी रखती है। यह हक भी केवल इस्लाम ही देता है।
  • इस्लाम ही तो यह बताता है कि जाति के आधार पर एक आदमी दूसरे आदमी से ऊंचा नहीं है, अच्छे कर्म करने वाला ऊंचा है और बुरे काम करने वाला नीच है।
  • इस्लाम ही तो है जो कहता है कि सन्यास लेना वर्जित है। कोई इंसान ईश्वर की खोज में अपने मां-बाप और बीवी-बच्चों को छोडकर न भागे बल्कि उनकी सेवा करे, उसका यही कर्म ईश्वर को प्रसन्न करेगा।
  • केवल इस्लाम है जो कहता है कि लोक-परलोक में मुक्ति के लिए इंसान के अपने निजी कर्म ही आधार बनेंगे। परलोक में मुक्ति के लिए पुत्र के होने की कोई अनिवार्यता नहीं है।
  • इससे भी आगे वह यह कहता है कि जिसके बेटियां हैं या उसके बहनें हैं और वह उन्हें अच्छी तरह पालता है और उन्हें अच्छी तालीम देता है और लडकों को लडकियों पर प्रधानता नहीं देता तो वह अवश्य ही जन्नत में जाएगा।
  • केवल इस्लाम है जो नारी जाति को जन्मतः निर्दोष और पापमुक्त बताता है। 
  • इससे भी आगे बढकर वह कहता है सारी मानव जाति पैदाइशी तौर पर निर्दोष और पापमुक्त है।
इस्लाम के अलावा कौन है जो यह सब बातें बताता हो ?
कि इस्लाम को भी दूसरे दार्शनिक मतों की तरह का एक मत मान लिया जाए ?

इस्लाम व्यक्ति और समाज को केवल आध्यात्मिक शिक्षा ही नहीं देता बल्कि सामाजिक , राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था भी देता है और ऐसा इस्लाम के अलावा कोई भी नहीं है। 
  • इस्लाम की उपासना पद्धति सरल और खर्चा रहित है और इसमें किसी तरह का अन्न-फल भी बर्बाद नहीं होता।
  • इस्लाम के अलावा कौन है जिसका धर्मग्रंथ आज भी वैसा ही सुरक्षित हो जैसा कि वह कभी शुरू में था ?
कोई एक भी नहीं।

जब कोई इस्लाम जैसा है ही नहीं तो फिर कैसे कह दिया जाए कि इस्लाम भी दूसरे बहुत से मतों की तरह का एक मत है।
इस्लाम सारी मानव जाति के लिए संपूर्ण मार्गदर्शन है, जो भी समाज इस पर चलता है, परलोक से पहले उसका कल्याण दुनिया में भी अवश्य होता है लेकिन इस पर चलने के लिए हौसला चाहिए।
इस्लाम सत्य है और इस सत्य को वही पाता है जो निष्पक्ष होकर विचार करता है।

Islam Is Not the Source of Terrorism, But Its Solution

Saturday, October 8, 2011

हत्या और आत्महत्या हराम है इस्लाम में

आम तौर पर लोग आत्महत्या तब करते हैं जब वे किसी समस्या से परेशान हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि उनके लिए अब मरने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है उस समस्या से बचने का . लेकिन हक़ीक़त यह है कि ऐसे लोग भी आत्महत्या करते हैं जो कि अपने जीवन से संतुष्ट होते हैं . गोवा में ऐसा ही वाकया पेश आया . 
उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि उनकी 'फिलॉसफी' यह है कि जीवन उनकी मिल्कियत है और उसे जब चाहें वे समाप्त कर सकते हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि यह एक बिलकुल ग़लत सोच है . 
जितने भी लोग आत्महत्या करते हैं उसके पीछे हमेशा ग़लत सोच मौजूद मिलेगी.
सही सोच यह है कि अपने आप को पैदा करने वाले हम ख़ुद नहीं हैं और न ही हम अपने तन मन धन के मालिक हैं . हमारा और हमारे पास जो कुछ है, उस सब का मालिक वास्तव में वह है जिसने हमें पैदा किया है.हम तो उसके बन्दे और ग़ुलाम हैं , हमें उसकी योजना को फ़ॉलो करना है और तब तक जीना है जब तक कि वह ख़ुद हमें मौत नहीं दे देता और केवल वही काम करने हैं , जिन्हें करने का हुक्म उसने हमें दिया है.
इस्लाम की शिक्षा यही है .
किसी की जान लेना या अपनी जान देना या किसी भी जान को नाहक़ तकलीफ़ देना इस्लाम में सख्त हराम है.
किसी और फिलोसफी में ऐसा नहीं है . इस्लाम की जानकारी और इस्लाम में आस्था लोगों को आत्महत्या से रोक सकती है और यही वजह है कि दुनिया में जितने भी लोग आत्महत्या करते हैं  उनमें सबसे कम संख्या मुसलमानों के होती है और उन मरने वाले मुसलामानों में भी देनदार मुसलमान एक भी नहीं होता. 
दीं की सही समझ न सिर्फ आत्महत्या से रोकती बल्कि वह हत्या से भी रोकती है. ह्त्या हो या आत्महत्या , आदमी करता ही तब है जबकि उसकी सोच गलत हो जाती है और गलती कभी धर्म नहीं होती. 
गलती से बचो , धर्म पर चलो ताकि उद्धार पाओ.
देखिये गोवा में हुए हादसे की तफ़्सील :    
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पणजी।। अब तक आपने जिंदगी से निराश लोगों द्वारा की गई खुदकुशी के बारे में सुना होगा, लेकिन गोवा में एक कपल ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि वह जिंदगी से संतुष्ट हो चुका था। इस कपल को जिंदगी ने वह सब कुछ दिया था, जो उसे चाहिए था।
गोवा के पणजी शहर के मर्सेस इलाके में एक यंग कपल आनंद (39) और दीपा रंथीदेवन (36) ने पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। पुलिस को इस घटना के बारे में तब पता चला, जब पड़ोसियों ने पुलिस में इसकी शिकायत की। पुलिस का कहना है कि इनके पास से जो सूइसाइड नोट मिला है, उसमें किसी को भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। 
एक पन्ने के सूइसाइड नोट में इस कपल ने लिखा है, 'हम दोनों ने एक साथ बहुत ही शानदार जीवन बिताया है। जीवन से हमें वे सारी खुशियां मिलीं, जिसकी लोग तम्मना रखते हैं। हमने पूरी दुनिया की यात्रा की और हम विश्व के कई शहरों में रहे। हमने इतना पैसा कमाया जितना कि हमने कभी सोचा भी नहीं था। हमने जिंदगी को खूब इंजॉय किया और हम अपने जीवन से संतुष्ट हो चुके हैं। हम इस फिलॉसफी में विश्वास रखते हैं कि हमारा जीवन सिर्फ हमारा है और इसे जीने या खत्म का अधिकार भी सिर्फ हमारा है।' 
इसमें आगे लिखा है कि कपल पर कोई देनदारी या लोन नहीं है। इसमें उनकी पूरी प्रॉपर्टी के बारे में जानकारी दी गई है। उन्होंने अपने अंतिम संस्कार के लिए 10 हजार रुपए भी छोड़ रखे हैं। सूइसाइड नोट में कपल ने लिखा है कि जो शख्स इस नोट को पाएगा वह हमारी अंतिम क्रिया करवा देगा। हमारी इच्छा है कि हमारा अंतिम संस्कार सरकारी श्मशान घाट पर किया जाए। पुलिस ने इस कपल के घर वालों और रिश्तेदारों को इस घटना की जानकारी दे दी है। 
पुलिस का मानना है कि कपल ने तीन दिन पहले आत्महत्या की होगी क्योंकि वह 3 अक्टूबर तक शहर के मशहूर फाइव स्टार रिजॉर्ट में रह रहे थे। वह वहां पर 2 महीने तक रहे।

Thursday, October 6, 2011

चुंबन पर रोक की मांग , इंसानी फितरत की आवाज़


इस्लाम की आवाज़ इंसानी फितरत से निकलती है . अब चाहे वह इंसान अरब का हो या हिंद का हो या फिर जर्मन का . अभी एक खबर पढ़ने में आई है ,

जर्मनी में ऑफिसों में चुंबन पर रोक की मांग

पश्चिमी देशों के समाज में एक दूसरे से मिलने पर चुंबन की प्रथा को तिरछी निगाहों से नहीं देखा जाता मगर जर्मनी में कामकाज की जगहों पर इसे रोकने की मांग उठी है। जर्मनी में शिष्टाचार और सामाजिक व्यवहार को लेकर सलाह देने वाले एक संगठन ने कामकाज की जगहों पर चुंबन पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा है।

द निगे सोसाइटी नाम के इस संगठन ने कहा कि अपने सहयोगियों और व्यापारिक साझीदारों से मिलने पर उनके गाल पर चुंबन देने की प्रथा कई जर्मन लोगों को असहज कर रही है।

इस संगठन के प्रमुख हांस माइकल क्लाइन का कहना है कि उन्हें इस बारे में कई लोगों से ई-मेल मिले हैं। वह कामकाज की जगहों पर लोगों को पारंपरिक तौर पर हाथ ही मिलाने की सलाह दे रहे हैं।

उन्होंने बीबीसी को बताया, 'वैसे हम लोगों को कामकाज की जगह पर चुंबन लेने पर प्रतिबंध तो नहीं लगा सकते। मगर हमें उन लोगों को भी बचाना है जो ये नहीं चाहते कि उनका चुंबन लिया जाए।'

क्लाइन इसलिए लोगों को सलाह दे रहे हैं कि अगर वे बुरा न मानें तो अपनी डेस्क पर इस बारे में कागज पर एक संदेश लिखकर रख दें।

कामोत्तेजक पहलू : उन्होंने बताया कि इस साल उन्हें इस बारे में 50 ई-मेल मिले हैं जिसमें बताया गया है कि कैसे ऑफिस में उनसे मिलने पर सहयोगी ने उनके एक या दोनों गालों पर चुंबन लिया।

क्लाइन के मुताबिक, 'लोगों का कहना है कि ये जर्मन तौर तरीकों में शामिल नहीं है। ये इटली, फ्रांस या दक्षिणी अमरीका जैसी जगहों से आया है और एक खास सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है। लोग कहते हैं कि हमें ये पसंद नहीं है।'

संगठन ने इस बारे में एक बैठक की और सड़क पर तथा अपने सेमिनार में इस पर एक सर्वेक्षण भी कराया।

क्लाइन ने बताया, 'अधिकतर लोगों ने कहा कि उन्हें ये पसंद नहीं है। उन्हें लगता है कि इसका एक कामोत्तेजक पहलू है जिसमें एक तरह का शारीरिक संपर्क होता है और पुरुष इसके जरिए महिलाओं के नजदीक आ सकते हैं।'

उन्होंने बताया कि यूरोप में 60सेंटीमीटर का एक 'सामाजिक दूरी का क्षेत्र' है जिसका पालन होना चाहिए। निगे सोसाइटी जर्मन भाषा के एक शब्दांश पर आधारित नाम है जिसे अच्छे व्यवहार का गाइड कहा जाता है और ये पश्चिमी जर्मनी के डॉर्टमंड से 80 किलोमीटर दूर स्थित है।

खबरों के अनुसार ये संगठन पहले भी कुछ सलाह जारी कर चुका है जिसमें एक संबंध खत्म करने के लिए फोन पर टेक्स्ट संदेश भेजने के अलावा सर्दी में नाक बहने पर सार्वजनिक तौर पर उससे कैसे निबटें- ये भी शामिल था।
Source : http://blogkikhabren.blogspot.com/ 

Wednesday, October 5, 2011

वादा और अमानत



1. हे आस्तिको ! प्रतिज्ञाओं को पूरा करो। -कुरआन [5, 1]
2. …और अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करो, निःसंदेह प्रतिज्ञा के विषय में जवाब तलब किया जाएगा।  -कुरआन [17, 34]
3. …और अल्लाह से जो प्रतिज्ञा करो उसे पूरा करो। -कुरआन [6,153]
4. और तुम अल्लाह के वचन को पूरा करो जब आपस में वचन कर लो और सौगंध को पक्का करने के बाद न तोड़ो और तुम अल्लाह को गवाह भी बना चुके हो, निःसंदेह अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। -कुरआन [16, 91]
5. निःसंदेह अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतें उनके हक़दारों को पहुंचा दो और जब लोगों में फ़ैसला करने लगो तो इंसाफ़ से फ़ैसला करो।  -कुरआन [4, 58]
6. और तुम लोग अल्लाह के वचन को थोड़े से माल के बदले मत बेच डालो (अर्थात लालच में पड़कर सत्य से विचलित न हुआ करो), निःसंदेह जो अल्लाह के यहां है वही तुम्हारे लिए बहुत अच्छा है यदि समझना चाहो। -कुरआन [16, 95]
महत्वपूर्ण आदेश आज्ञाकारी और पूर्ण समर्पित लोगों को ही दिए जाते हैं। जो लोग समर्पित नहीं होते वे किसी को अपना मार्गदर्शक भी नहीं मानते और न ही वे अपने घमंड में उनकी दिखाई राह पर चलते हैं। इसीलिए यहां जो आदेश दिए गए हैं, उनका संबोधन ईमान वालों से है।
समाज की शांति के लिए यह ज़रूरी है कि समाज के लोग आपस में किए गए वादों को पूरा करें और जिस पर जिस किसी का भी हक़ वाजिब है, वह उसे अदा कर दे।  अगर समाज केसदस्य लालच में पड़कर ऐसा न करें और यह चलन आम हो जाए तो जिस फ़ायदे के लिए वे ऐसा करेंगे उससे बड़ा नुक्सान समाज को वे पहुंचाएंगे और आखि़रकार कुछ समय बादखुद भी वे उसी का शिकार बनेंगे। परलोक की यातना का कष्ट भी उन्हें झेलना पड़ेगा, जिसके सामने सारी दुनिया का फ़ायदा भी थोड़ा ही मालूम होगा। वादे,वचन और संधि केबारे में परलोक में पूछताछ ज़रूर होगी। यह ध्यान में रहे तो इंसान के दिल से लालच और उसके अमल से अन्याय घटता चला जाता है।स्वर्ग में दाखि़ले की बुनियादी शर्त है सच्चाई। जिसमें सच्चाई  का गुण है तो वह अपने वादों का भी पाबंद ज़रूर होगा। जो अल्लाह से किए गए वादों को पूरा करेगा, वह लोगों से किए गए वायदों को भी पूरा करेगा। वादों और प्रतिज्ञाओं का संबंध ईमान और सच्चाई से है और जिन लोगों में ये गुण होंगे, वही लोग स्वर्ग में जाने के अधिकारी हैं और जिस समाज में ऐसे लोगों की अधिकता होगी, वह समाज दुनिया में भी स्वर्ग की शांति का आनंद पाएगा।
अमानत को लौटाना भी एक प्रकार से वायदे का ही पूरा करना है। यह जान और दुनिया का सामान जो कुछ भी है, कोई इंसान इसका मालिक नहीं है बल्कि इन सबका मालिक एक अल्लाह है और ये सभी चीज़ें इंसान के पास अमानत के तौर पर हैं। वह न अपनी जान दे सकता है और न ही किसी की जान अन्यायपूर्वक ले सकता है। दुनिया की चीज़ों को भी उसे वैसे ही बरतना होगा जैसे कि उसे हुक्म दिया गया है। दुनिया के सारे कष्टों और आतंकवाद को रोकने के लिए बस यही काफ़ी है।
अरबी में ‘अमानत‘ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है।
ज़िम्मेदारियों को पूरा करना, नैतिक मूल्यों को निभाना, दूसरों के अधिकार उन्हें सौंपना और सलाह के मौक़ों पर सद्भावना सहित सलाह देना भी अमानत के दायरे में हीआता है। अमान��� के बारे में आखि़रत मे सवाल का ख़याल ही उसके सही इस्तेमाल गारंटी है। कुरआन यही ज्ञान देता है।
वास्तव में सिर्फ़ इस दुनिया का बनाने वाला ही बता सकता है कि इंसान के साथ उसकी मौत के बाद क्या मामला पेश आने वाला है ?
और वे कौन से काम हैं जो उसे मौत के बाद फ़ायदा देंगे ?
वही मालिक बता सकता है इंसान को दुनिया में कैसे रहना चाहिए ?
और मानव का धर्म वास्तव में क्या है ?
कुरआन उसी मालिक की वाणी है जो कि मार्ग दिखाने का वास्तविक अधिकारी है क्योंकि मार्ग, जीवन और सत्य, हर चीज़ को उसी ने बनाया है।

Wednesday, September 28, 2011

क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी है कि उसकी आयतों को आगे पीछे की आयतों के साथ जोड कर पढ़ा जाए . In the context of Gadeer e khum

क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और अल्लाह का वादा है कि इसकी हिफाज़त  हम करेंगे।
कौन है जो अल्लाह से बढ़कर सच्चा हो ?
कौन है जो अल्लाह से बढ कर ताकत रखता हो ?
क़ुरआन की हिफाजत करने वाला अल्लाह है, यही वजह है कि क़ुरआन में न तो कोई आयत कम हुई और न ही कोई आयत इसमें बढ़ाई जा सकी, इसकी ज़बान जिंदा ज़बान है, दुनिया भर में बोली और समझी जाती है। यही वजह है कि इसके अर्थ भी स्पष्ट हैं। इसी के साथ जिस शखिसयत पर यह कलाम नाज़िल हुआ, उसकी जिंदगी की तमाम ज़रूरी तफ्सीलात भी महफूज़  हैं। यही वजह है कि इसके अर्थ बदलने की कोशिशें भी आज तक कामयाब न हो सकीं। दुनिया की यह अकेली किताब है जिसे करोड़ों लोगों ने ज़बानी याद कर रखा है। इसे रोजाना पढ़ा जाता है और इसे पढ ने की इजाज त औरत-मर्द और ख़ास व आम हरेक को है। यहां तक कि जो लोग इस्लाम के अनुयायी नहीं हैं, वे भी इसे पढ  सकते हैं।
क़ुरआन का एक नाम कसौटी भी है। यह किताब सही-ग़लत में फ़र्क़  कर देती है। आप कोई भी बात लाएं और क़ुरआन पर पेश कर दें तो आप देखेंगे कि यह बिल्कुल साफ  बता देती है कि यह बात सही है या ग़लत। यहां तक कि बहुत सी बातें जो हदीस के नाम से मशहूर कर दी गईं या सही वाक ये में इज़ाफ़ा  करके उसका कुछ से कुछ बना दिया, उन्हें भी जब कुरआन पर पेश किया जाता है तो क़ुरआन हमारी बिल्कुल सही रहनुमाई करता है।
यह महफ़ूज किताब, जो कि एक कसौटी भी है, उन लोगों के इरादों को हमेशा ही नाकाम करती रही है जो कि लोगों को अल्लाह की हिदायत से हटाने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने यह किया कि उन्होंने अपने मामलात को कुरआन पर पेश करने के बजाय क़ुरआन को ही अपने अक़ीदों पर पेश करना शुरू कर दिया। क़ुरआन की आयतों को आपसी रब्त से समझने के बजाय यहां-वहां से टुकड़े काट कर दूसरों को बताने लगे कि देखो जो बात हम मानते हैं, वह यहां से साबित होती है।
आज कुछ ग़ैर-मुस्लिम संगठन भी यही करते हैं कि युद्ध संबंधी आयतों को आगे पीछे से काट कर उठा लेते हैं ताकि उन पर ऐतराज़ किया जा सके .
सिर्फ़ ग़ैर-मुस्लिम ही नहीं बल्कि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें दुनिया मुसलमान के नाम से जानती है, वे भी यही करते हैं कि पूरी आयत को समझने के बजाय और उसे आस पास की आयतों से जोड़ कर देखने के बजाय, बीच में से एक टुकड़ा उठा लेते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनके लिए उस वाक्य को अपने अर्थ पहनाना आसान हो जाता है। ऐसे लोग खुद भी गुमराह होते हैं और दूसरों को भी गुमराह करते हैं और गुमराह भी वही लोग होते हैं जो उनकी बात को कुरआन पर पेश नहीं करते।
क़ुरआन के दो मक़ामात  को इसी तरह से अपने अक़ीदे के मुताबिक  ढालने की कोशिश की गई और फिर पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ हिजरत और जिहाद करने वाले बहुत से सहाबा रजि . के किरदार पर शक पैदा करने की कोशिश की, ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि यही वे लोग थे जिन्होंने कुरआन को संकलित किया था। 

इस्लाम की मुखालिफत करने वाला ग्रुप जब कुरआन में किसी भी तरह की तब्दीली करने से मायूस हो गया तो उसने यह तरीक़ा अख्तियर किया कि कुरआन में शक पैदा किया जाए और इसका तरीक़ा उन्हें यही समझ में आया कि जिन लोगों ने इसे संकलित किया, उनकी समझ और उनके अमल को दागदार और नाक़िस दिखाने की कोशिश की जाए और यह सब उन्होंने अक़ीदत  के चोले में किया। इसके नतीजे में बहुत से सादा दिल मुसलमान फंस गए और वे आज तक उन बातों को दोहराते रहते हैं जो कुरआन की नज़र से बातिल महज़  हैं।
वे दो आयतें तरतीबवार ये हैं -
# ( अलयौमा  अकमलतु लकुम दीनकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना ) सूरए माइदा आयत न.3
"आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।” सूरह ए माइदा आयत नं..3

## ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता .  सूरह ए माइदा आयत नं. 67

कहने वाले कहते हैं कि ये दोनों आयतें ग़दीर ए ख़ुम के मक़ाम पर नाज़िल हुईं और इन दोनों आयतों में पैग़म्बर हजरत मुहम्मद सल्ल. को अल्लाह यह हुक्म दे रहा है कि हज़रत अली की इमामत का ऐलान कर दीजिए। उनकी इमामत के ऐलान के साथ ही दीन मुकम्मल हुआ। 
इमामत से मुराद यह है कि इमाम भी अल्लाह की तरफ़ से ऐसे ही मामूर होता है जैसे कि नबी होता है और वह भी गुनाहों से ऐसे ही 'मासूम' होता है जैसे कि नबी होता है। नबी के बाद इत्तेबा सिर्फ़ उसी आदमी की करनी चाहिए, जिसे कि अल्लाह ने इमाम बनाया है। इमाम के अलावा किसी और की इत्तेबा करना जायज़ ही नहीं है।
हज़रत अली राज़ियाल्लाहु अन्हु के फ़ज़ाएल व मनाक़िब मुसल्लम हैं और वह अल्लाह के महबूबतरीन बन्दों में से हैं, इसमें कुछ शक नहीं है लेकिन इस तरह की बातें करना दीन में तहरीफ़ और ग़ुलू करना है .
हजरत अली रज़ि. की इमामत के लिए पहली दलील
"आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।” सूरह ए माइदा आयत नं. 3


इन  दोनों में पहला तो केवल आयत का एक टुकड़ा है जो कि बीच से उठा लिया गया है और उसे अपनी तरफ  से अर्थ पहनाने की कोशिश की गई है। जब हम इस टुकड़े  को उसके मक़ाम से हटाए बिना पढ़ते  हैं तो पूरी आयत पढ़ते ही पता चल जाता है कि आयत के इस टुकड़े  का ताल्लुक  खाने-पीने में हलाल हराम चीज़ों वगैरह के अहकाम से है न कि किसी की इमामत के ऐलान से।
आगे पीछे की आयतें भी इसी विषय को बयान कर रही हैं यानि कि इस
मक़ाम पर कुरआन इतना स्पष्ट है कि किसी तरह की तावील से भी इस मक़ाम का ताल्लुक  इमामत के ऐलान से साबित नहीं किया जा सकता।
अलमाएदा की शुरू की पांच आयतें देखिए, इनमें ही एक टुकड़ा यह भी है।

ऐ ईमान लानेवालो! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं, समझौतों आदि) का पूर्ण रूप से पालन करो। तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है (1) 
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की निशानियों का अनादर न करो; न आदर के महीनों का, न क़ुरबानी के जानवरों का और न जानवरों का जिनका गरदनों में पट्टे पड़े हो और न उन लोगों का जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की चाह में प्रतिष्ठित गृह (काबा) को जाते हो। और जब इहराम की दशा से बाहर हो जाओ तो शिकार करो। और ऐसा न हो कि एक गिरोह की शत्रुता, जिसने तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित घर का रास्ता बन्द कर दिया था, तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम ज़्यादती करने लगो। हक़ अदा करने और ईश-भय के काम में तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग न करो। अल्लाह का डर रखो; निश्चय ही अल्लाह बड़ा कठोर दंड देनेवाला है (2)
तुम्हारे लिए हराम हुआ मुर्दार रक्त, सूअर का मांस और वह जानवर जिसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो और वह जो घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर या सींग लगने से मरा हो या जिसे किसी हिंसक पशु ने फाड़ खाया हो - सिवाय उसके जिसे तुमने ज़बह कर लिया हो - और वह किसी थान पर ज़बह कियी गया हो। और यह भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) कि तीरो के द्वारा किस्मत मालूम करो। यह आज्ञा का उल्लंघन है - आज इनकार करनेवाले तुम्हारे धर्म की ओर से निराश हो चुके हैं तो तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम को पसन्द किया - तो जो कोई भूख से विवश हो जाए, परन्तु गुनाह की ओर उसका झुकाव न हो, तो निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है (3)
वे तुमसे पूछते है कि "उनके लिए क्या हलाल है?" कह दो, "तुम्हारे लिए सारी अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल है और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधे हुए शिकारी जानवर के रूप में सधा रखा हो - जिनको जैसे अल्लाह ने तुम्हें सिखाया हैं, सिखाते हो - वे जिस शिकार को तुम्हारे लिए पकड़े रखे, उसको खाओ और उसपर अल्लाह का नाम लो। और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह जल्द हिसाब लेनेवाला है।" (4)
 आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमानवाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताबवालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मेहर) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को। और जिस किसी ने ईमान से इनकार किया, उसका सारा किया-धरा अकारथ गया और वह आख़िरत में भी घाटे में रहेगा (5)
-सूरह ए माइदा आयत नं. 1 से 5 तक

ये सूरह ए माएदा की शुरू की पांच आयतें हैं. इनमें से हरेक आयत अपने आगे पीछे की आयत से जुडी हुई है . जो कुरान के हुक्म को जानना चाहते हैं वे हरेक आयत को उसके आगे पीछे की आयत से जोड़ कर उसका अर्थ समझते हैं और हिदायत पाते हैं , अल्लाह ऐसे ही लोगों को सीधे रास्ते की तरफ़रहनुमाई करता है. 

हजरत अली रज़ि. की इमामत के लिए दूसरी दलील
दूसरी दलील जिस आयत से दी जाती है, वह यह है:
'ऐ रसूल ! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता.'  सूरए माइदा आयत न. (67)

इस आयत में कहीं हज़रत अली की इमामत का ज़िक्र नहीं है बल्कि इसमें पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अल्लाह यह कह रहा है कि 'जो कुछ आप पर नाज़िल किया गया है उसे पहुंचा दीजिए' और फिर अगली आयत में अल्लाह बता भी रहा है कि क्या पहुंचाना है ?
इस आयत को आगे की आयत के साथ मिलाकर पढ़ लीजिए तो साफ हो जाएगा कि पहले अल्लाह ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा कि जो कुछ आप पर नाजिल किया गया उसे पहुंचा दीजिए ताकि रिसालत का हक  अदा हो और फिर 'क़ुल' कह कर हुक्म भी दिया कि आप 'अहले किताब' (यानि यहूदियों और ईसाईयों)  से यह कह दीजिए।
 'ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता . (67) 
कह दो, "ऐ किताबवालो ! तुम किसी भी चीज़ पर नहीं हो, जब तक कि तौरात और इंजील  को और जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है, उसे क़ायम न रखो।" किन्तु (ऐ नबी!) तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर जो कुछ अवतरित हुआ है, वह अवश्य ही उनमें से बहुतों की सरकशी और इनकार में अभिवृद्धि करनेवाला है। अतः तुम इनकार करनेवाले लोगों की दशा पर दुखी न होना .' (68)
सूरए माइदा आयत न. (67)(68)
यह बात भी काबिले ग़ौर है कि इन आयतों में अहले किताब का ज़िक्र  किया जा रहा है और हज्जतुल विदा से लौटते वक्त पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ यहूदियों और ईसाईयों में से कोई भी नहीं था। जब उनमें से कोई साथ ही नहीं था तो उन्हें संबोधित करने वाली आयत ग़दीर ए ख़ुम में नाज़िल होने का औचित्य भी कुछ नहीं है।
इस तरह न सिर्फ यह पता चलता है कि हज़रत अली रज़ियाल्लाहु अन्हु की इमामत व मासूमियत के लिए इन आयतों कोई दलील नहीं है बल्कि यह भी पता चलता है इनके नुज़ूल का मक़ाम भी ग़दीर ए ख़ुम नहीं हो सकता।
आम तौर पर हम इस तरह की बातों से बचते हैं लेकिन जब हमें कहा गया कि गुमराही से बचने के लिए यह मानना ज़रूरी है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद इत्तेबा का हक  सिर्फ हज़रत अली रजि . ही रखते हैं और ये इस सिलसिले में कुछ दलीलें भी दी गईं और फिर हिंदी ब्लॉग जगत में कुछ पोस्ट्‌स भी इस सिलसिले में देखने में आईं तो फिर हमने जरूरी समझा कि इन दलीलों पर गौर जरूर करना चाहिए।
इन आयतों पर गौर करने के बाद पता चला कि आयतों के साथ खिलवाड़  किया जा रहा है और जो बात उनमें नहीं कही जा रही है, वह बात उनसे साबित करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। इसके लिए आयत और उसके शब्दों को, दोनों को उनके मक़ाम से हटाया जा रहा है।
यह भी अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि सूरह माइदा की जिस आयत नं. 3 67  के साथ अर्थ बदलने की यह कोशिश की जा रही है, जब हमने उन्हें पढ़ा तो उनके दरम्यान अल्लाह ने दो जगह बताया कि अल्लाह की किताब का अर्थ बदलने वाले कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।
'वे कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।' सूरह ए माइदा आयत नं. 13
'वे शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बाद भी उनके स्थान से हटा देते हैं।' सूरह माइदा आयत नं. 41
अल्लाह ऐसे लोगों के बारे में कहता है कि
'ये वही लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना नहीं चाहा। उनके लिए संसार में भी अपमान और तिरस्कार है और आखिरत में भी बड़ी  यातना है।'
जो आदमी कुरआन में शक करता है, वह बातिल है और जो आदमी असबाबे शक पैदा करता है, वह भी बातिल है।
क़ुरआन हक़ है और मुकम्मल तौर पर महफ़ूज़ है।
कुरआन के माअना अयां हैं और जो उनमें गौर व फिक्र करते हैं, अल्लाह उन्हें सीधे रास्ते की रहनुमाई करता है।
जो हक  और हक़ीक़त की तड़प रखते हैं, वे क़ुरआन को समझकर हिदायत पाते हैं।
अल्लाह हमारे दिलों में भी सच्चाई को पाने की सच्ची तड़प पैदा कर दे और हमारे दिलों को हरेक तरह के तास्सुब से पाक कर दे।
आमीन !

Thursday, August 25, 2011

इस्लामी साहित्य Islamic Books free Download


Tuesday, August 23, 2011

इंसानी चरित्र पर रमज़ान का प्रभाव

रमज़ान का महीना चार गुणों से युक्त होता है।
1. सिफ़त ए रमज़ान
2. सिफ़त ए मवासात यानि हमदर्दी व ग़मगुसारी का गुण
3. सिफ़त ए सब्र
4. सिफ़त ए वुसअत ए रिज़्क, रोजी में ख़ैरो बरकत
ये तमाम गुनाहों को जला देता है और नेकियों से भर देता है। जिस तरह सोना जलने से कुन्दन बन कर निखर जाता है और मैल कुचैल से साफ़ शफ़्फ़ाफ़ हो जाता है, उसी तरह रमज़ानुल मुबारक मुसलमानों के तमाम गुनाहों को धो डालता है। मवासात यानि हमदर्दी व ग़मगुसारी का सबक़ भी देता है। भाईचारे और बराबरी की भावना, एक दूसरे के दुख दर्द में शरीक होना और एक दूसरे की तकलीफ़ों में साथ देना भी सिखाता है।
भूखा रहकर दूसरों की भूख प्यास की तड़प का अहसास कराता है। फिर वह तंगदस्त और मुफ़लिसी पर ग़ौरो फ़िक्र करने पर मजबूर होता है और अपना मदद का हाथ ग़रीबों, मिस्कीनों, फ़क़ीरों और विधवाओं की तरफ़ बढ़ाता है। यह रमज़ान की ही बरकत है कि ईद के दिन अमीर व ग़रीब उम्दा और शानदार लिबास पहनकर एक ही सफ़ में खड़े हुए नज़र आते हैं। ग़मख्वारी न करने की वजह से इंसान को संगदिल कहा जाता है और उनका समाज में न इज़्ज़त का मक़ाम होता है , न वक़ार और न ही दबदबा। दर्दमंदी , शफ़क्क़त और बोझ हल्का करने से दुनिया की बड़ाईयों के अलावा आखि़रत (परलोक) की नेमतों से भी मालामाल होता है।
क़ुरआन और हदीस में नफ़्सानी ख्वाहिश की पूर्ति को इंसान की तमाम ख़ताओं और मुसीबतों की जड़ क़रार दिया गया है। रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं -‘नफ़्सानी ख्वाहिशात को ‘हवा‘ इसलिए कहा गया है क्योंकि वह अपनी पैरवी करने वाले को नीचता की ओर ले जाती है।‘
लिहाज़ा पस्ती से बचने के लिए नफ़्सानी ख्वाहिशात की मुख़ालिफ़त इंतिहाई ज़रूरी है। हालांकि नफ़्स की ख्वाहिशात यानि मन की इच्छाओं की मुख़ालिफ़त करना एक इंतिहाई मुश्किल और मेहनत तलब काम है लेकिन मुमकिन है। इस रास्ते में इंसान को ख़ुदा से मदद मांगनी चाहिए। नफ़्स के खि़लाफ़ जिहाद का बेहतरीन मौक़ा माहे रमज़ान है क्योंकि इस महीने में शैतान क़ैद कर दिए जाते हैं।
पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं -‘शैतान इस महीने में क़ैद कर दिए जाते हैं। अपने नफ़्स पर क़ाबू हासिल करने में रमज़ान से बेहतर कोई और महीना नहीं है।
रमज़ान दरअस्ल नफ़्स पर क़ाबू हासिल करने का ज़रिया है लेकिन हमारे यहां इसे सहरी और इफ़्तार के वक्त नफ़्स को ख़ूब लज़्ज़त मुहैया कराने का महीना बना लिया गया है। हम सिर्फ़ यही समझते हैं कि सहरी से लेकर इफ़्तार तक न खाकर हमने रमज़ान के महीने पर बहुत बड़ा अहसान कर दिया है और फिर भूख से पैदा होने वाली वो सारी कमी इफ़्तार और सहरी के वक्त पूरी कर लेते हैं। फ़िज़ूल ख़र्ची की हद तो यह है कि इस महीने वो खाने भी बनाए जाते हैं जिन्हें बाज़ दफ़ा पूरे साल में एक दफ़ा भी नहीं बनाया जाता। इस तरह घरों पर बिला वजह फ़िज़ूलख़र्ची का बोझ बढ़ता है। जो पैसे ग़रीबों, मिस्कीनों, विधवाओं और ज़रूरतमंदों की मुहताजगी दूर करने में ख़र्च होने चाहिए थे वो सिर्फ़ दिखावा की नज़्र हो जाते हैं। सादा सहरी और इफ़्तार को तो अपनी इज़्ज़त और वक़ार के बिल्कुल खि़लाफ़ समझना आम बात है। सहरी ताक़तवर ग़िज़ा से इस तरह की जाती है कि शाम तक भूख न लगे।
इस तरह रोज़े का मक़सद है कि दूसरों के दुख दर्द और तकलीफ़ को महसूस करना, यह मक़सद ख़त्म हो जाता है।
क्या हम कभी ग़रीबों की इफ़्तार के वक्त इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची से काम लेते हैं ?
या कभी किसी ग़रीब की इफ़्तार के वक्त क़िस्म क़िस्म के पकवान तैयार करवाते हैं ?
या दस्तरख्वान को उनके लिए फलों से इस तरह सजाते हैं ?
क्या हमने कभी इस पर ग़ौर किया है कि यह ग़रीब भी अल्लाह का इतना ही प्यारा बंदा है जितने कि हम ?
क्या कभी किसी ग़रीब को सिर्फ़ यह सोच कर इफ़्तार कराया कि यह अल्लाह का बंदा भी इतनी ही इज़्ज़त का हक़दार है जितने कि हमारे दोस्त और रिश्तेदार ?
इसलिए हम पर पूरे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े रखने के बावजूद उसकी कोई ख़ासियत पैदा नहीं होती और रमज़ान ख़त्म होते ही हम वो तमाम ख़ुराफ़ात करने लगते हैं, जिन्हें मना किया गया है।
आज हमारी हालत दीगर क़ौमों से बदतर है और हम हरेक विभाग में उनके मुक़ाबले पाताल में पड़े हैं। आदत व अख़लाक़ व किरदार के मामले में हम कहीं नहीं टिकते।
क्या रमज़ान की चार सिफ़तों में से एक भी सिफ़त है ?
हमें दिल की गहराईयों से इसका जायज़ा लेना चाहिए। सिर्फ़ रमज़ान के रोज़े रखने और तमाम ज़िंदगी ठीक उसके खि़लाफ़ काम करने से हमें कुछ हासिल नहीं होगा।
दरअसल रमज़ान हमारी ज़िंदगी की हर साल सर्विस करता है ताकि अगले साल तक हम इन सिफ़तों (गुणों) की पाबंदी दम ख़म से कर सकें और अपनी ज़िंदगी के किसी लम्हे में भी इस्लाम के सुनहरे उसूलों को न छोड़ें।
आईये संकल्प लें कि हम रमज़ान के हक़ीक़ी मायनों को अमली जामा पहनाएंगे, हर उस चीज़ से गुरेज़ करेंगे जो हमें इस्लाम मना करता है और ज़िंदगी के हर मामले में इस्लामी उसूल और क़ायदे को तरजीह देंगे ताकि हम अपने अहले वतन के लिए एक नमूना ए अमल बनें। ठीक इसी तरह जिस तरह हमारे बुज़ुर्ग हुआ करते थे ताकि आज भी कोई ग़ैर मुस्लिम कह सके कि ‘यह मुसलमान का बच्चा है, झूठ नहीं बोलेगा, इंसाफ़ से काम लेगा।‘
लेखक - आबिद अनवर, राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट उमंग से उर्दू से हिन्दी अनुवाद, दिनांक 21 अगस्त 2011