Monday, July 30, 2012

क़ुरआन व हदीस की रौशनी में ज़कात के मुस्तहिक़ लोग

कलिमा ए तय्यिबा के इक़रार के बाद ज़कात इसलाम का तीसरा स्तंभ है और इसकी अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद में नमाज़ क़ायम करने के हुक्म के साथ बार बार ज़कात अदा करने का हुक्म दिया गया है। ज़कात का मक़सद इसलामी समाज में मालदार लोगों से माल लेकर ग़रीब लोगों की आर्थिक रूप से मदद करना है ताकि ग़रीबी का ख़ात्मा हो। आज मुसलमानों में जो मुफ़लिसी और ग़रीबी हमारे समाज में मौजूद है वह इस बात का सुबूत है कि ज़कात की सही अदायगी नहीं हो रही है और वह असल हक़दारों तक पूरी तरह नहीं पहुंच रही है। आम तौर से लोग इस बात से नावाक़िफ़ हैं कि ज़कात लेने के हक़दार कौन कौन लोग हैं और ज़कात किन लोगों पर फ़र्ज़ है ?हर वह शख्स जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या 52 तोला चांदी या इस निसाब के मूल्य जितने माल पर साल गुज़र जाए तो उसे उस का चालीसवां हिस्सा यानि ढाई प्रतिशत ज़कात अदा करनी फ़र्ज़ है। क़ुरआन व हदीस में ज़कात को सदक़ा भी कहा गया है। सूरा ए तौबा की 9वीं आयत का तर्जुमा है-‘‘ज़कात जो हक़ है वह हक़ है फ़ुक़रा (मुफ़लिसों) का और मसाकीन (मुहताजों) का और आमिलीन (ज़कात के काम में जाने वालों) का और मौल्लिफ़तुल क़ुलूब (ऐसे ग़ैर मुस्लिम जिनकी दिलजोई की ज़रूरत हो) का और रिक़ाब (गर्दन छुड़ाने में) का आज़िमीन (क़र्ज़दार) का और सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में जानतोड़ संघर्ष करने वालों) का और इब्नुस्सबील (मुसाफ़िर जो सफ़र में ज़रूरतमंद हो)‘‘क़ुरआन पाक के इन अहकामात के बारे में हदीस शरीफ़ में स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने ज़कात की तक़सीम को किसी नबी या ग़ैर नबी की मर्ज़ी पर नहीं छोड़ा बल्कि अल्लाह ने ख़ुद उसके मसारिफ़ मुतय्यन कर दिए हैं जो 8 हैं। लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि इस बात की तहक़ीक़ कर ली जाए कि जिन्हें हम ज़कात दे रहे हैं वे क़ुरआन व हदीस की रू से उसके मुस्तहिक़ हैं और हमारी ज़कात उपरोक्त 8 मदों मे ही अदा हो रही है।एक हदीस में है कि एक शख्स ने अल्लाह के रसूल से कुछ माल तलब किया तो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ‘‘मेरे पास सदक़ा का माल है, अगर तुम उसके मुस्तहिक़ हो तो दे सकता हूं वर्ना नहीं‘‘, यानि ज़कात देते वक्त हक़ीक़त जानना इस हदीस से साबित है। ‘फ़ुक़रा‘ वे लोग हैं जिनके पास ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी करने का सामान नहीं है और खाने पीने से भी मुहताज हैं लेकिन असल फ़ुक़रा की शान सूरा ए बक़रा की 273वीं आयत में अल्लाह तआला ने यूं बयान फ़रमाई है-भावार्थ-‘‘वे फ़ुक़रा जो अल्लाह की राह में रोक दिए गए हैं, जो मुल्क में चल नहीं सकते, नादान लोग उनके सवाल न करने की वजह से उन्हें मालदार ख़याल करते हैं। आप उनके चेहरे देखकर उन्हें पहचान लेंगे क़ियाफ़ा से। वे लोगों से लिपट कर सवाल नहीं करते। तुम जो कुछ माल ख़र्च करो तो अल्लाह उसका जानने वाला है।‘‘ इसी तरह मिस्कीन की तारीफ़ हदीस शरीफ़ में यह है कि हुज़ून नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि दरअसल मिस्कीन तो वह है कि जिसके पास इतना माल न हो जो उसे किफ़ायत कर जाए और कोई उसका हाल भी न जानता हो कि उसे ख़ैरात दे दे और न लोगों से ख़ुद सवाल करे।(सही बुख़ारी किताबुज़्जकात)दअसल ज़कात का मक़सद ही यह है कि ग़रीब और नादार लोगों और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी की जाए और अपने आस पास के लोगों, रिश्तेदारों पड़ोसियों, यतीमों, विधवाओं, ग़रीब विद्यार्थियों, ज़रूरतमंद मुसाफ़िरों, क़र्ज़दारों की ख़बरगीरी की जाए और ज़कात के मुस्तहिक़ीन की तहक़ीक़ करके उन्हें ज़कात दी जाए।
लेखक - प्रोफ़ेसर बसीर अहमद, 
राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 27 जुलाई 2012 पृष्ठ 10, लेख ‘ क़ुरआन व हदीस की रौशनी में ज़कात के मुस्तहिक़ीन ‘ का एक अंश

Thursday, July 26, 2012

माहे रमज़ान की फ़ज़ीलत


रमज़ान की फ़ज़ीलत व बरतरी के बारे में हज़रत शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रमज़ान गुनाहों से पाक होने का महीना है, अहले वफ़ा का महीना है और उन का महीना जो अल्लाह का ज़िक्र करने वाले हैं। अगर यह महीना तेरे दिल की दुरूस्तगी न करेगा, गुनाहों से न बचाएगा, तो फिर कौन सी चीज़ उन चीज़ों से तुझे बचाएगी। इस महीने में तो मोमिनों के दिल मारिफ़त व ईमान के नूर से रौशन हो जाते हैं।
हज़रत मुजददिद अलिफ़ सानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि अगर इस महीने में किसी आदमी को नेक आमाल की तौफ़ीक़ मिल जाए तो पूरे साल यह तौफ़ीक़ उस के शामिल ए हाल रहेगी और अगर यह महीना बेदिली, बेफ़िक्री, तरद्दुद व इन्तशार के साथ गुज़रेगा तो पूरा साल इसी हाल में गुज़रने का अंदेशा है क्योंकि इस महीने का एक एक लम्हा क़ीमती है।
अल्लामा इब्ने क़य्यिम रहमतुल्लाह अलैह ने रोज़े के बारे में फ़रमाया है कि ‘‘यह अहले तक़वा की लगाम, मुजाहिदीन की ढाल और अबरार मुक़र्रबीन की रियाज़त है।
इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रोज़े का मक़सद यह है कि आदमी अख़लाक़े इलाहिय्या में से एक अख़लाक़ को तो अपने अंदर पैदा कर ले जिसे समदियत कहते हैं। वो यह है कि इम्कानी हद तक फ़रिश्तों की तक़लीद करते हुए ख्वाहिशात से ख़ाली हो जाए। जब यह अपनी ख्वाहिशात पर ग़ालिब आ जाता है तो आला इल्लिय्यीन और फ़रिश्तों के आफ़ाक़ तक पहुंच जाता है।
हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी फ़रमाते हैं कि रोज़ा भूख प्यास, मैथुन को छोड़ना, तर्के मुबाशिरत, ज़ुबान, दिल और जिस्म के दूसरे अंगों को क़ाबू करने का महीना है।
चुनांचे रमज़ान रहमतों के नुज़ूल, बरकात के ज़ुहूर, सआदतों के हुसूल और अल्लाह के फ़ज़्ल की तलाश व जुस्तजू का महीना है। इस महीने में रहमतें इस तरह नाज़िल होती हैं कि हम उन का अहाता भी नहीं कर सकते। 

लेखक - हमीदुल्लाह क़ासमी कबीर नगरी, राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 26 जुलाई 2012 पृष्ठ 4, 
लेख ‘ईनाम व इकराम का महीना है‘ का एक अंश

Monday, July 9, 2012

इसलाम में आर्थिक व्यवस्था के मार्गदर्शक सिद्धांत Islamic Economics


लेखक : डा. सैयद ज़फ़र महमूद info@zakatindia.org
अनुवाद: डा. अनवर जमाल
पवित्र क़ुरआन में परमेश्वर ने सृष्टि रचना का मक़सद खोल कर बयान कर दिया है यानि यह कि दुुनिया इंसानों के इम्तेहान के लिए है ताकि यह जांचे कि इस दुनिया को इंसानों की बेहतरीन जगह बनाने में सकारात्मक तरीक़े से हिस्सा लेकर ‘कौन बेहतरीन अमल करने वाला है ?‘(सूरह हूद आयत 7) सूरह बक़रह की आयत 2 व 3 में परमेश्वर बताता है कि नेकी और सदाचार का मर्तबा सिर्फ़ इबादत से ही हासिल नहीं होता। वह इंसानों से अपेक्षा करता है कि वे नमाज़ क़ायम करें और उस रिज़्क़ में से जो रब ने उन्हें अता किया है, ज़रूरतमंदों पर ख़र्च करें। यह ख़र्च (इन्फ़ाक़) माल, भोजन, लिबास, जिस्मानी मदद और शिक्षा देना वग़ैरह सब पर मुश्तमिल हो सकता है। सूरह बक़रह आयत 195 में परमेश्वर ख़बरदार करता है कि मुनासिब तरीक़े से इन्फ़ाक़ (अल्लाह की ख़ातिर ख़र्च ) करने में कोताही अपनी सामाजिक तबाही का सबब बन सकती है। इसी सूरह की आयत 261 - 274 में परमेश्वर और अधिक स्पष्ट करता है कि उसके हुक्म के मुताबिक़ ख़र्च करने का नतीजा जन सामान्य के लिए रोज़गार के साधन पैदा करने की ख़ातिर माल व असबाब और प्रशिक्षण  उपलब्ध कराने के रूप में होना चाहिए।
परमेश्वर ने भौतिक साधनों में कुछ लोगों को कुछ लोगों पर श्रेष्ठता और बढ़त दी है और इसमें अपनी यह हिकमत बयान की है कि वह मालदारों पर यह ज़िम्मेदारी डालता है कि वे इस बात को यक़ीनी बनाएं कि ज़िन्दगी के असबाब व साधन तमाम इंसानों के दरम्यान उनके निजी आर्थिक स्तर और कमाने की सामर्थ्य की तमीज़ के बिना न्यायपूर्ण तरीक़े से तक़सीम हों। एम्पलॉयर और एम्पलॉई के दरम्यान ताल्लुक़ के संदर्भ में यह ज़िम्मेदारी और भी ज़्यादा नाज़ुक हो जाती है। यही बात लेन देन वाले दूसरे तमाम तरह के ताल्लुक़ात पर भी चरितार्थ होती है। हासिल करने वालों की ऐसी ही फ़ेहरिस्त में परमेश्वर ज़रूरतमंदों, यतीमों, ग़ुलामों (नए दौर में जिन के तहत घरेलू नौकर भी शामिल हैं) को भी शामिल करता है। दरअसल पूंजीपति आदमी महज़ परमेश्वर की देन का अस्थायी मुतवल्ली (न्यासी) है। (सूरह हदीद आयत 7) कभी कभी परमेश्वर इन आदेशों की अवहेलना करने के नकारात्मक परिणाम उस से अपनी देन वापस लेकर उसकी ज़िन्दगी में ही दिखा देते हैं। (सूरह अलक़लम आयत 7-33)
ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करने से बचने को परमेश्वर ने दीन और आखि़रत (परलोक) पर यक़ीन न रखना क़रार दिया है। (सूरह माऊन आयत 1-7) ऐसे आदमी की इबादत रब के नज़्दीक क़ुबूल नहीं की जातीं। लिहाज़ा सामाजिक और आर्थिक हमवारी एक बड़ा मक़सद है। नमाज़, रोज़ा और हज्ज वग़ैरह इबादतें ख़ुद अपने आप में मक़सद महज़ नहीं हैं। ये सृष्टि रचना के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए इंसान को तैयार करने का ज़रिया हैं।
ऐसे तमाम लोगों के लिए जिन्हें परमेश्वर ने दूसरों के मुक़ाबले ज़्यादा दिया है, यह ज़रूरी है कि उनका माल व साधन जन सामान्य के सामाजिक व आर्थिक कल्याण हेतु ख़र्च होना चाहिए। अगर कोई दौलतमंद आदमी अपना माल सही तरह से काम में लाने में असमर्थ है तो यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह उसके माल व असबाब के सही तौर पर काम में आने के लिए रचनात्मक योगदान दे। इस तरह जन सामान्य के हित को लाहासिल निजी मिल्कियत पर तरजीह दी गई है। (अन्-निसा 29) बेहतरीन सामाजिक व आर्थिक आचरण इसलाम की सामाजिक व्यवस्था का आधार है।
इसलाम में ज़कात और सदक़ा भलाई के काम हैं। ज़कात के लिए आदमी के माल का चालीसवां हिस्सा हिस्सा क़रार दिया गया है। जबकि सदक़े की राशि निर्धारित करने के लिए क़ुरआन व हदीस में रहनुमा उसूल मौजूद हैं। सूरह बक़रह की आयत 219 में साफ़ हुक्म है कि तुम्हारे पास जो भी तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा है उसे तुम्हें परमेश्वर के मार्ग में ख़र्च कर देना है। इस हुक्म को ‘क़ुलिल अफ़ू‘ का नाम दिया गया है। पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सहाबा से, जिन में हज़रत अबू बक्र रज़ि. व हज़रत उमर रज़ि. भी शामिल थे, फ़रमाया कि जो कुछ अपने परिवार के लिए ज़रूरी हो उसे रोक लो और जो बचे उसे सदक़ा कर दो। सदक़ा वसूल करना और उसे जन सामान्य के हित में इस्तेमाल करना ‘ऊलिल अम्र‘ (ऐसे लोग जो आर्थिक, रूहानी, शैक्षिक, सामाजिक और दीगर ऐतबार से अधिकार रखते हों) की ज़िम्मेदारी है। (अत्-तौबा 103 व अन्निसा 59) ऐशो आराम में मगन रहने को नापसंद किया गया है। (सूरह अलअनआम आयत 141, अलआराफ़ 31, हूद 6, अलअम्बिया 13) यह चीज़ व्यक्ति को समाज और परमेश्वर से काट देती है और बौद्धिक व सामाजिक शक्तियों को कमज़ोर करती है। माल को बर्बाद करने को इसलाम में मना किया गया है। (सूरह बनी इसराईल 26-27)
कारोबारी क़र्ज़ों के विषय में ‘मुज़ारिबत‘ का भी एक सिस्टम है। जिसमें एक पक्ष माल लगाता है और दूसरा पक्ष मेहनत करता है। माल लगाने वाला नफ़ा और नुक्सान में बराबर का भागीदार होता है। मिसाल के तौर पर अगर दो आदमी कोई कम्पनी क़ायम करते हैं और हरेक सरमाया और मेहनत का आधा हिस्सा लगाता है तो नफ़ा की तक़सीम कुछ मुश्किल नहीं है लेकिन अगर एक पक्ष पूंजी लगाता है और मेहनत दूसरा करता है या माल तो दोनों लगाते हैं लेकिन काम सिर्फ़ एक ही करता है या भागीदारों की लगाई गई पूंजी का अनुपात बराबर नहीं है तो ऐसे मामलों में मुनाफ़े और फ़ायदे की तक़सीम से पहले पूर्व निर्धारित शर्तों की बुनियाद पर मुआवज़ा स्वीकार किया गया है। वास्तव में ख़तरे को रोकने के लिए हरसंभव उपाय किया गया है। इसके बावजूद इसलाम यह आग्रह करता है कि एग्रीमेंट वाले तमाम मामलों में नफ़ा और नुक्सान दोनों में हिस्सेदारी करनी चाहिए।
देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अच्छे और बुरे आर्थिक परिणाम की तमीज़ नहीं की जाती। अल्कोहल की पैदावार और डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग आदि में लगे समय, साधन और श्रम और फिर सेहत के लिए उसके ख़तरे और सामाजिक नुक्सान, ये सब इकोनॉमिक आउट पुट में शुमार होती हैं और जीडीपी का हिस्सा हैं लेकिन दरहक़ीक़त ये समाज, परिवार और घर के लिए बेहद घातक है। इसी तरह क़र्ज़ बढ़ती हुई सतहें और घरों की तालाबंदी से आम तौर पर परिवार बर्बाद होते हैं और बड़े पैमाने पर सामाजिक बुराईयां फैलती हैं। क़र्ज़ों का रिवाज जैसे जैसे बढ़ता है तो एक हक़ीक़ी ख़तरा ‘फ़ाइनेंशियल मेल्टडाउन‘ यानि आर्थिक जड़ता की शक्ल में ज़ाहिर होता है। जिससे आर्थिक समस्याएं बढ़ जाती हैं। जीडीपी नागरिकों के कल्याण से बहुत कम ताल्लुक़ रखती है। दौलतमंद पश्चिमी देशों में जीडीपी की सतह और तरक्क़ी की दर बहुत ऊंची होने के बावजूद वहां लाखों लोग ग़रीबी में जी रहे हैं।
पूरी क़ौम के एक बड़े से केक में से सारे नागरिकों को एक बड़ा टुकड़ा मिलेगा। यह बात तक़सीम के ग़ैर बराबरी वाले सिस्टम की वजह से यक़ीनी नहीं है। (यानि पूरी क़ौम या देश की कुल पैदावार बहुत ज़्यादा होने के बावजूद यह ज़रूरी नहीं है कि सारे ही नागरिकों की आमदनी का स्तर बढ़ गया है) इसके खि़लाफ़ इसलाम के आर्थिक मॉडल की कामयाबी यह है कि यह हरेक नागरिक की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति को यक़ीनी बनाने की क्षमता रखता है।
इमाम बुख़ारी रह. ने इब्ने उमर रज़ि. से रिवायत नक़ल की है कि ‘‘पवित्र पैग़म्बर स. ने फ़रमाया: इमाम राई है और अपनी रिआया (प्रजा) के लिए ज़िम्मेदार व जवाबदेह है।‘‘  और  ‘‘ऐ आदम के बेटे ! क्या तुम अपने पास कुछ रखते हो ?, सिवाय उसके जो कुछ तुमने खा लिया और ख़र्च कर लिया, जो तुमने पहना और उतार दिया और जो कुछ तुमने भेंट कर दिया और अपने लिए बचाकर रख लिया।‘‘
इसलाम में आय का वितरण आर्थिक व्यवस्था का आधार है और यह हुकूमत की ख़ास ज़िम्मेदारी है। दौलत/माल की गर्दिश पूरे समाज में होनी चाहिए, न कि महज़ अमीरों और दौलतमंदों के दरम्यान ही घूमता रहे। पैग़म्बर मुहम्मद स. ने मदीने हिजरत करने के मौक़े पर अन्सार से मुहाजिरों को माल दिलवाया। इब्ने अब्बास रज़ि. के हवाले से रिवायत किया गया है कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अन्सार से फ़रमाया-‘‘क्या तुम इस बात को पसंद करते हो कि तुम अपने घर और अपने माल अपने पास रखो और मैं तुम्हें इस माले ग़नीमत में से कुछ न दूं ?‘‘
इसके अलावा सोने और चांदी को जमा करके रखना जो कि इसलामी देश की करेंसी है, सख्ती के साथ मना है।
परमेश्वर कहता है: जो लोग सोना और चांदी जमा करके रखते हैं और परमेश्वर के मार्ग में ख़र्च नहीं करते, उन्हें एक दर्दनाक यातना की शुभसूचना दे दो. (सूरह अत्-तौबा 34)
राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 9 जुलाई 2012 पृष्ठ 7 में प्रकाशित